विजन और मिशन

आज हम सब लोगों को उन तमाम सवालों के बारे में सोचने की ज़रूरत है जो आज़ादी के इतने सालों बाद भी अनुत्तरित पड़े हैं, जिसके जवाब के लिए हमारे पुरखों ने अपनी कुर्बानी दी । रोटी तो हम तब भी खा लेते थे, जब हम गुलाम थे । नींद हमें तब भी आ जाती थी, जब हम गुलाम थे । शादी-ब्याह-रिश्तेदारी तब भी हो जाती थी, जब हम गुलाम थे । लेकिन हमारे पुरखों को यह ग़ुलामी मंजूर नहीं थी । हमारे देश की आज़ादी के लिए लाखों लोगों ने अपनी कुर्बानी दी । अपना सर्वस्व न्यौछावर किया । लोगों ने अपनी पूरी ज़िंदगी खपा दी, अपना सब कुछ त्याग कर दिया । इस देश को आज़ादी इसी त्याग, तपस्या और बलिदान के दम पर मिली है ।

लेकिन आज़ादी के इतने सालों बाद आज भी मजदूरों की ज़िंदगी जानवरों से बदतर हो गई है, किसान का हाल और भी बेहाल हो गया है, छात्रों को अपनी डिग्रियां लेकर भटकना पड़ रहा है तो हमारे मन में प्रश्न पैदा होता है कि आखिर हमने आज़ादी के इतने सालों में क्या किया है ? आज़ादी के इतने सालों बाद भी आज अगर महिलाओं की स्थिति दोयम दर्जे की बनी हुई है तो उससे मुक्ति का रास्ता क्या हो सकता है ? समाज के उन तमाम तबके जिनके श्रम से, जिनकी मेहनत से इस देश का निर्माण होता है, उनके हालात इतने ख़राब क्यों हैं ? खेत में अगर मज़दूर -किसान काम ना करें तो अन्न पैदा नहीं हो सकता । देश की फैक्ट्रियों में अगर मज़दूर अपना खून-पसीना ना बहायें तो आज विकास की जो चकाचौंध दुनिया है, वह अपने दम पर संसाधन पैदा नहीं कर सकती । लेकिन इन संसाधनों को पैदा करने वाले मज़दूरों की ज़िंदगी इतनी मज़बूर, इतनी मज़लूम क्यों है?

मैं यह मानता हूँ कि भारत ने आज़ादी के बाद अपनी विकास-यात्रा के दौरान अपने कदम को आगे बढ़ाया है लेकिन उस विकास यात्रा के सकारात्मक पहलुओं के साथ-साथ आज नकारात्मक पहलुओं का भी एक बड़ा पहाड़ खड़ा हो गया है । आज पूरा देश ख़ासतौर से युवा उन समस्याओं का समाधान चाहता है और उस समाधान की तलाश में इधर-उधर भटक रहा है । वह उन समस्याओं के समाधान के लिए चारों तरफ हाथ-पैर मार रहा है । इतिहास के पन्नों को खंगाल रहा है और भविष्य की चुनौतियों को भी समझने की कोशिश कर रहा है ।

ऐसे दौर में इन समस्याओं के समाधान की दावेदारी के रूप में कहा जा रहा है कि अगर भारत को हिन्दूराष्ट्र बना दिया जाए तो समस्त समस्याओं का समाधान हो जाएगा । लेकिन क्या हिन्दूराष्ट्रवाद जिसको हम नकारात्मक राष्ट्रवाद कहते हैं, भारत की बेरोजगारी की समस्या का समाधान कर सकता है ? क्या नकारात्मक राष्ट्रवाद भारत के छात्रों की समस्याओं का समाधान कर सकता है ? क्या नकारात्मक राष्ट्रवाद का रास्ता किसानों की समस्याओं का समाधान कर सकता है ? क्या नकारात्मक राष्ट्रवाद का रास्ता भारत के दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों की समस्याओं का, उनके अपमान का समाधान कर सकता है ? क्या भारत के अंदर नकारात्मक राष्ट्रवाद का रास्ता भारत को एक विकसित, समृद्ध और खुशहाल राष्ट्र बना सकता है ? नहीं बना सकता ।

भारत को एक विकसित, समृद्ध और खुशहाल राष्ट्र बनाने के लिए सकारात्मक राष्ट्रवाद की ज़रूरत है । कई लोगों के मन में यह प्रश्न पैदा हो सकता है कि राष्ट्रवाद तो राष्ट्रवाद होता है उसमें सकारात्मक और नकारात्मक क्या होता है ? इसको ठंडे दिमाग से समझना जरूरी है । एक इंसान-इंसान होता है लेकिन वह सकारात्मक भी सोचता है और नकारात्मक भी सोचता है । इसी प्रकार विचार भी होता है, जो कि सकारात्मक भी होता है और नकारात्मक भी होता है और ठीक इसी प्रकार कोई कार्य भी होता है, जो सकारात्मक भी होता है और नकारात्मक भी होता है । उस कार्य के आधार पर परिणाम अच्छे भी निकलते हैं और बुरे भी निकलते हैं । उसी तरह से राष्ट्रवाद भी होता है और इस राष्ट्रवाद की परिणति नकारात्मक भी होती है और सकारात्मक भी होती है ।

भारत के बेटे-बेटियों को न तो सकारात्मक राष्ट्रवाद से कुछ लेना देना है और न ही नकारात्मक राष्ट्रवाद से । जब हम बीमार पड़ते हैं तो हमें उस रोग का इलाज चाहिए । वह इलाज अगर आयुर्वेद से होता है तो आयुर्वेद अच्छा है, अगर एलोपैथ से होता है तो एलोपैथ भी अच्छा है, अगर यूनानी दवा से होता है तो यूनानी दवा भी अच्छी है, अगर होम्योपैथिक दवा से होता है तो होम्योपैथिक दवा भी अच्छी है । हमें समाधान चाहिए, देश का युवा समाधान चाहता है ।

नकारात्मक राष्ट्रवाद द्वारा एक समाधान देने की दावेदारी की जा रही है जिसमें यह दावा किया जा रहा है कि यदि भारत को हिन्दूराष्ट्र बना दिया जाए तो भारत की समस्त समस्याओं का समाधान हो सकता है । हिन्दूराष्ट्रवाद क्या है ? नकारात्मक राष्ट्रवाद क्या है ? दुनिया के अंदर दो अलग ऐतिहासिक परिस्थितियों में दो अलग-अलग तरह के राष्ट्रवाद पैदा हुए । नकारात्मक राष्ट्रवाद और सकारात्मक राष्ट्रवाद ।

लोगों के मन में यह प्रश्न पैदा होगा कि नकारात्मक राष्ट्रवाद और सकारात्मक राष्ट्रवाद को कैसे पहचाने ? नकारात्मक राष्ट्रवाद दूसरों पर वर्चस्व के लिए काम करता है जबकि सकारात्मक राष्ट्रवाद न्याय और हक के लिए लड़ता है । नकारात्मक राष्ट्रवाद दूसरों को गुलाम बनाना चाहता है जबकि सकारात्मक राष्ट्रवाद आज़ादी के लिए संघर्ष करता है । नकारात्मक राष्ट्रवाद जब अपने देश के अंदर दूसरे लोगों, समाजों और समुदायों पर वर्चस्व कायम कर लेता है तो दूसरे राष्ट्र पर वर्चस्व कायम करना चाहता है और उस वर्चस्व की प्रक्रिया में ही दुनिया को दो बार विश्व युद्ध और जनसंहार का सामना करना पड़ा । सकारात्मक राष्ट्रवाद जैसा मैंने कहा- न्याय के लिए लड़ता है, हक के लिए लड़ता है, आज़ादी के लिए लड़ता है और दुनिया के अंदर मानवता और बंधुत्व के लिए लड़ता है । अगर आपको लगता है कि न्याय के लिए लोग संगठित हो रहे हैं तो समझिये कि सकारात्मक राष्ट्रवाद है । लोग अगर हिस्सेदारी के लिए संगठित हो रहे तो समझिये कि सकारात्मक राष्ट्रवाद है । लोग अगर आज़ादी के लिए लड़ रहे हैं तो समझिये कि सकारात्मक राष्ट्रवाद है । लोग अगर मानवता, बंधुत्व और समानता के लिए लड़ रहे हैं तो समझिये कि सकारात्मक राष्ट्रवाद है । वही अगर लोग दूसरों के ऊपर वर्चस्व के लिए लड़ रहे हैं तो समझिये कि नकारात्मक राष्ट्रवाद है । अगर दूसरों को गुलाम बनाने के लिए, नीचा दिखाने के लिए लड़ रहे तो समझिये कि नकारात्मक राष्ट्रवाद है । अगर दूसरे देश को गुलाम बनाने के लिए, उस पर वर्चस्व कायम करने के लिए, लूट के लिए लड़ रहे हैं, इकट्ठा हो रहे हैं तो समझिये कि नकारात्मक राष्ट्रवाद है ।

नकारात्मक राष्ट्रवाद भविष्य में समस्याओं का समाधान कर सकता है या नहीं ? इसको जानने के लिए इतिहास के पन्नों को खंगालना बहुत ज़रूरी है । जो नकारात्मक राष्ट्रवाद की परिकल्पना है, उसके अनुसार कोई भी राष्ट्र तभी मजबूत बन सकता है, आगे बढ़ सकता है और संगठित होकर अपनी समस्याओं का समाधान कर सकता है जब उसके अंदर एक धर्म, एक भाषा और एक नस्ल हो । नकारात्मक राष्ट्रवाद कहता है दिमाग बंद कर लो और केवल दिल से काम लो । वह अंधविश्वास पर भरोसा करता है । सकारात्मक राष्ट्रवाद की तरफ से मैं आपसे कहना चाहता हूं दिल-दिमाग सब कुछ खोल लें, जितने भी इंद्रियां हैं, उन्हें भी खोल लें फिर सोचें, समझें और विचार करें, उसके बाद यकीन करें ।

दुनिया के अंदर नकारात्मक राष्ट्रवाद के जो प्रयोग हुए, उसके दो उदाहरण रखना चाहूंगा । पहला उदाहरण है- जर्मनी, जहां एक नस्ल, एक जाति और एक धर्म के आधार पर नकारात्मक राष्ट्रवाद का जो चित्र विकसित हुआ उसकी पराकाष्ठा हिटलर के नेतृत्व में सामने आई । उसका क्या परिणाम निकला ? पहला परिणाम- जर्मनी के अंदर लाखों-लाख लोगों का कत्लेआम हुआ । उसी देश के बेटे-बेटियों के लहू बहाए गए । दूसरा परिणाम- जर्मनी दो हिस्सों में विखंडित हो गया और तीसरा परिणाम- देश को शक्तिशाली बनाने की दावेदारी करने वाला नायक आत्महत्या करने के लिए मज़बूर हो गया । जब आप नकारात्मकता को अपने चरम पर पहुंचाते हैं तो समाज के अंदर भी नकारात्मकता फैलती है और आपके अंदर भी नकारात्मकता फैलती है । नकारात्मकता कभी विकास नहीं कर सकती है । इसने पहले भी विनाश किया है आज भी कर रही है और कल भी यह विनाश ही करेगी । जर्मनी का इतिहास हमें यही सिखाता है ।

नकारात्मक राष्ट्रवाद का दूसरा उदाहरण भारत की आज़ादी की लड़ाई के बाद 1947 में देखने को मिलता है जहाँ द्विराष्ट्रवाद का सिद्धांत सामने आता है जिसमें यह माना गया कि दो अलग-अलग धर्मों के लोग मिलकर एक राष्ट्र का निर्माण नहीं कर सकते । इसलिए अगर उनका भविष्य सुरक्षित रखना है तो दो अलग-अलग राष्ट्र बनाने ही पड़ेंगे । इस तरह इस देश का विभाजन हो गया । 15 अगस्त 1947 इस देश की आज़ादी का दिन है और 15 अगस्त 1947 इस देश के विखंडन का भी दिन है । इस देश को खंडित कर एक नया देश पाकिस्तान इस दावेदारी के साथ बनाया गया कि इस नए देश में सबकी तरक्की का रास्ता खुलेगा, सबको शिक्षा की गारंटी होगी, सबको रोज़गार मिलेगा ।

हम सब जानते हैं कि धर्म के आधार पर जिस पाकिस्तान का निर्माण हुआ, उसके तीन परिणाम निकले । पाकिस्तान के अंदर भी बड़े पैमाने पर आतंकवाद के कारण हज़ारों-हज़ार लोग कत्लेआम के शिकार हुए । पाकिस्तान और बांग्लादेश के रूप में पाकिस्तान दो हिस्सों में खंडित हो गया, जबकी दोनों जगह एक ही धर्म के मानने वाले लोग रहते हैं । पाकिस्तान के तमाम राष्ट्र नायकों को हत्या और आत्महत्या से गुज़रने के लिए मज़बूर होना पड़ा ।

धर्म के आधार पर बने राष्ट्र पाकिस्तान के सभी बेटे-बेटियों को शिक्षा की गारंटी नहीं मिली, सबको रोज़गार की गारंटी नहीं मिली, महिलाओं को आज़ादी की गारंटी नहीं मिली, पाकिस्तान दुनिया का विकसित और संगठित राष्ट्र नहीं बन पाया और अंततः उसका विखंडन हो गया । वही हाल जर्मनी का भी हुआ वह भी खंडित हो गया । नकारात्मक राष्ट्रवाद की बुनियाद पर निर्मित जब पाकिस्तान संगठित नहीं रह पाया, जर्मनी संगठित नहीं रह पाया तब भारत संगठित कैसे रह पाएगा ?

धर्म के आधार पर, नस्ल के आधार पर, भाषा के आधार पर, राष्ट्र न कल एकत्रित रह पाए थे न आज रह पायेंगे । न कल वो संगठित रहकर तरक्की और विकास की ऊंचाइयों तक पहुंच सके थें न आज पहुंच सकते हैं । देश के वे तमाम नौजवान जो इस भ्रम में हैं कि एक धर्म के आधार पर राष्ट्र बनने से भारत की तरक्की का रास्ता खुलेगा, खुशहाली का रास्ता खुलेगा, रोज़गार का रास्ता खुलेगा और भारत दुनिया का सर्वश्रेष्ठ राष्ट्र बनेगा । मैं उन तमाम नौजवानों से यह अनुरोध करूँगा कि वे इन दोनों देशों, जर्मनी और पाकिस्तान के इतिहास को ठंडे दिमाग से देखें, परखें और समझें ।

नकारात्मक राष्ट्रवाद के संवाहकों की दूसरी दावेदारी यह है कि वे भारत की सभ्यता और संस्कृति का संरक्षण कर रहे हैं । इसको भी गहराई से परखने की ज़रूरत है । आज तमाम नौजवान इसी भ्रम में नकारात्मक राष्ट्रवाद के इस पूरे महाभियान में शामिल हो रहे हैं कि चलो देश का विकास नहीं होगा तो कम से कम हमारे धर्म का, हमारे समाज का, हमारी सभ्यता का, हमारी भारतीय संस्कृति का संरक्षण तो होगा । उन तमाम नौजवानों को इतिहास के पन्नों में झांकने की ज़रूरत है कि आखिर भारतीय सभ्यता और संस्कृति क्या है ?

सिन्धु घाटी की सभ्यता के अंदर जो संस्कृति और परम्परा थी वह भारतीय संस्कृति का हिस्सा है या नहीं ? वैदिक काल के अंदर जो हमारी सभ्यता, संस्कृति और परम्परा विकसित हुई, वह भारतीय सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा है या नहीं ? जैन काल में जो सभ्यता और संस्कृति विकसित हुई, वह भारतीय सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा है या नहीं ? बौद्ध काल में जो सभ्यता और संस्कृति का विकास हुआ, वह भारतीय सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा है या नहीं ? भारत के अंदर कबीर, नानक, जायसी, दादू, मीरा के भक्ति आंदोलन का जो पूरा अभियान चला वह भारत की सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा है या नहीं ? भारत के अंदर 1757 से लेकर 1947 तक दुनिया के सबसे लंबे स्वतंत्रता संग्राम के दौरान जो सभ्यता, संस्कृति और परम्परा विकसित हुई, वह भारत की सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा है या नहीं ? हमारे इतिहास के पन्नों से अगर सभ्यता और संस्कृति के इन हिस्सों को निकाल देंगे तो फिर भारत की सभ्यता और संस्कृति का जो हिस्सा बचेगा उसके आधार पर न तो भारतीय इतिहास बन सकता है और न ही भारत का भविष्य बन सकता है ।

आज यह कहा जा रहा है कि अगर तुम राष्ट्रवादी हो तो तुम्हें एक भाषा बोलनी पड़ेगी, एक धर्म को मानना पड़ेगा, एक संस्कृति को मानना पड़ेगा, एक विचारधारा को मानना पड़ेगा और अगर तुम्हारा विचार इससे अलग है तो तुम राष्ट्रद्रोही हो । हमारी परम्परा क्या रही है ? भारत का सबसे प्राचीन ग्रंथ वेद हैं । भारत के अन्दर एक वेद की रचना नहीं हुई । भारत के अंदर ऋग्वेद भी पैदा हुआ, सामवेद भी पैदा हुआ, अथर्ववेद भी पैदा हुआ और यजुर्वेद भी पैदा हुआ । अगर भारत के अंदर सिर्फ एक तरह की चिन्तन प्रक्रिया की परम्परा होती तो चार वेद पैदा नहीं होते । भारत के अंदर सबसे प्राचीन नौ दर्शन हैं । भारत की संस्कृति और सभ्यता के नौ दर्शन अलग-अलग ऋषियों के द्वारा, अलग-अलग महर्षियों के द्वारा प्रतिपादित हुए । भारत के अंदर अगर चार्वाक दर्शन जैसा नास्तिक दर्शन है तो यहाँ वेदांत दर्शन जैसा आस्तिक दर्शन भी है । भारत के अंदर चार्वाक दर्शन भी पैदा होता है । भारत के अंदर जैन दर्शन, बौद्ध दर्शन, सांख्य दर्शन, योग दर्शन, वैशेषिक दर्शन, मीमांसा दर्शन और न्याय दर्शन भी पैदा होता है । इसके अलावा पुराणों की संख्या भी अठारह है । भारत में चार वेद, नौ दर्शन और अठारह पुराण क्या कहते हैं ? वे कहते हैं कि हमारी भारतीय सभ्यता और संस्कृति के अंदर अपने-अपने ज्ञान, विवेक और व्यवहार के अनुसार अलग-अलग चिन्तनकरने की, सोचने की, समझने की और उसके अनुसार लोगों से बात करने की, संवाद करने की आज़ादी थी । चार वेदों की परम्परा है भारतीय संस्कृति, अठारह पुराणों की परम्परा है भारतीय संस्कृति, नौ दर्शन की परम्परा है भारतीय संस्कृति ।

यदि हम इतिहास के पन्नों को देखने की कोशिश करें तो कई लोग कहते हैं कि भारत कभी सोने की चिड़िया था । दुनिया को ज़ीरो भारत ने दिया । यह तब की बात है जब हमें अलग-अलग तरह से सोचने-समझने और संवाद करने की आज़ादी थी । मनुस्मृति आने से पहले भारत का मंजर अलग था । मनुस्मृति के आधार पर ज्यों-ज्यों हम संकुचित होते गए, हमारी प्रतिभाएं भी कुंठित होती गई और प्रतिभाएं जब कुंठित होती गई तो हमारी गुलामी का भी रास्ता खुलता गया और अंततः हमारे विकास का रास्ता बंद होता गया । इसलिए जब हम भारतीय सभ्यता और संस्कृति पर चिन्तनकरने की बात करते हैं तो मै सभी युवाओं से कहना चाहता हूं कि भारत की समग्र सभ्यता और संस्कृति के जो सकारात्मक पहलू है उसे संग्रहित कर के ही नए भारत का रास्ता बनेगा । भारत के अंदर जो नकारात्मक चिन्तनहै, जो अंधविश्वास की परम्परा है उससे भारत कभी आगे नहीं बढ़ सकता ।

हमें आध्यात्म भी चाहिए और विज्ञान भी । जहाँ व्यक्तित्व के विकास और सकारात्मक चिन्तन के विकास के लिए आध्यात्म चाहिए, वही इस देश के विकास के लिए विज्ञान और तकनीक की ज़रूरत है । अंधविश्वास और आडम्बरों के रास्ते पर चलकर न तो व्यक्ति का विकास हो सकता है और न ही राष्ट्र का विकास हो सकता है । न तो भारतीय सशक्त हो सकते हैं और ना ही भारत राष्ट्र सशक्त हो सकता है । इसलिए भारतीय सभ्यता और संस्कृति को अगर आगे बढ़ाना है, तो हमें बुद्ध से लेकर विवेकानंद की परम्परा को और कबीर से लेकर भगत सिंह की परम्परा को पुनर्जीवित करना पड़ेगा । मैं ज़िम्मेदारी से कहना चाहता हूँ कि बुद्ध से लेकर विवेकानंद और कबीर से लेकर भगत सिंह तक की परम्परा, भारत की गौरवशाली परम्परा रही है । यह भारतीय सभ्यता और संस्कृति के सर्वोच्च गुणों पर, बलिदान पर, त्याग पर, तपस्या पर आधारित परम्परा है ।

कोई भी व्यक्ति, कोई भी समाज और कोई भी राष्ट्र अपने इतिहास के सकारात्मक पहलुओं को संयोजित करके ही आगे बढ़ सकता है । इतिहास ने हमें यही सिखाया है और भविष्य भी इसी पर टिका हुआ है । इसलिए नौजवानों आपसे कहना चाहता हूं कि देश को अगर आगे बढ़ना है तो हमें भारतीय सभ्यता और संस्कृति के सकारात्मक पहलुओं को विकसित करना है और उसके नकारात्मक पहलुओं से बचते हुए आगे बढ़ना है ।

आपके अंदर जो नकारात्मक सोच है, आपके अंदर जो दुर्गुण है, उससे आप को मुक्त होना पड़ेगा तभी आप आगे बढ़ पाएंगे । आपके अंदर की जो सकारात्मक ऊर्जा है उसे जब विकसित करेंगे तभी आप आगे बढ़ पाएंगे । अगर आप सिर्फ इसलिए नकारात्मक ऊर्जा को संजोये रखते हैं क्योंकि वह आपकी अपनी है और इसलिए आप उसे आगे बढ़ाएंगे तो इससे विनाश होगा । लेकिन अगर आप सकारात्मक ऊर्जा को ग्रहण करके उसे अपनाएंगे और उसे आगे बढ़ाएंगे तो विकास का रास्ता खुलेगा, समृद्धि का रास्ता खुलेगा, खुशहाली का रास्ता खुलेगा । इतिहास के पन्नों के नकारात्मक बिंदुओं को संयोजित करने का नाम है- नकारात्मक राष्ट्रवाद । इतिहास की उन तमाम परम्पराओं, विश्वासों और संस्कृति के सकारात्मक पहलुओं और अपने अंदर की सकारात्मक ऊर्जा को संयोजित करके आगे बढ़ने का नाम है- सकारात्मक राष्ट्रवाद ।

नकारात्मक राष्ट्रवाद और हिन्दूराष्ट्रवाद के संवाहकों की तीसरी दावेदारी यह है कि वे सबसे बड़े देश भक्त हैं । उनकी इस दावेदारी को भी गहराई से समझने की ज़रूरत है । भारत के अंदर आज़ादी की लड़ाई के दौरान हिन्दूराष्ट्रवाद के चिंतक पैदा हो चुके थे, उनके संगठन भी बन चुके थे । मैं आपको बताना चाहता हूं कि इस देश की आज़ादी के लिए 1857 में लाखों लोगों ने अपनी कुर्बानी दी, वे हिन्दू राष्ट्रवाद के चिन्तनसे प्रभावित लोग नहीं थी । इस देश के अंदर करतार सिंह सराभा हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर अपनी जान न्यौछावर कर दिये, वे हिन्दूराष्ट्रवाद के चिन्तनसे प्रभावित नहीं थे । भारत के अंदर मदन लाल धींगरा, भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव, पंडित राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खां जैसे हजारों-हजार नौजवान हंसते-हंसते फांसी के फंदे को चूम लिया, वे सब हिन्दूराष्ट्रवादी चिन्तनसे प्रभावित होकर अपनी शहादत नहीं दिए बल्कि भारतीय राष्ट्रवाद, सकारात्मक राष्ट्रवाद के चिन्तनसे प्रभावित होकर फांसी की सूली पर चढ़ गए ।

आज भी हिन्दू राष्ट्रवाद के, नकारात्मक राष्ट्रवाद के पुरोधाओं को स्वतंत्रता संग्राम से एक नाम बताना मुश्किल हो जाता है । जब लोग देश की आज़ादी के लिए लड़ रहे थे, उनकी विचारधारा से एक भी ऐसा नौजवान क्यों नहीं पैदा हुआ जो देश के लिए अपनी कुर्बानी दे ? कुल मिलाकर जोड़-तोड़ करके सिर्फ एक नाम सामने आता है, वह नाम आता है- वीर सावरकर जी का । वीर सावरकर जी की दो ज़िंदगी थी । एक ज़िंदगी में उन्हें हिन्दू और मुसलमान की एकता के आधार पर लड़ा गया 1857 का स्वतंत्रता संग्राम सबसे ज्यादा प्रभावित करता है लेकिन जेल के अंदर जब अंग्रेजों के द्वार उनके ऊपर दबाव पड़ता है तो अंग्रेजों से वे माफी मांगते हैं और बाहर आते हैं । इसके बाद 1857 के सकारात्मक राष्ट्रवाद की परम्परा के उलट हिन्दू राष्ट्रवाद और हिंदुत्व के प्रचारक बन जाते हैं । इस प्रकार भारत की स्वतंत्रता के लिए जो उनके अंदर आग थी वह बुझ जाती है और वे स्वतंत्रता संग्राम की मुख्य धारा से अलग हो जाते हैं । प्रश्न यह पैदा होता है कि आज जो लोग राष्ट्रवाद और देशभक्ति की दावेदारी कर रहे हैं ? वे उस विचारधारा के अंदर, इस देश की आज़ादी की लड़ाई के दौरान संघर्ष करने वाले नौजवानों की टीम तैयार क्यों नहीं कर पाए ? लंबे समय तक भारत के राष्ट्रध्वज को फहराने में उन्हें शर्म क्यों आती थी ?

मैं आपसे कहना चाहता हूं कि इस देश के अंदर नकारात्मक राष्ट्रवाद वर्चस्व पैदा कर सकता है, कुछ लोगों को सत्ता के सिंहासन पर बैठा सकता है लेकिन इस देश की सभ्यता और संस्कृति को नहीं बचा सकता है । नकारात्मक राष्ट्रवाद इस देश के अंदर, मां भारती के लिए मर-मिटने की परम्परा, त्याग, तपस्या और बलिदान की भावना नहीं पैदा कर सकता है और देश को एकत्रित करके शक्तिशाली नहीं बना सकता है । नकारात्मक राष्ट्रवाद के पास यह क्षमता ही नहीं है । यह बात किसी व्यक्ति के विरोध की नहीं है । यह बात उस विचारधारा की है जिसके पास अंततोगत्वा समाधान ही नहीं है । इतिहास के पन्नों में जो विचारधारा समाधान नहीं निकाल पाई । वर्तमान में सत्ता के सर्वोच्च शिखर पर पहुंचने के बाद भी जो विचारधारा समाधान नहीं निकाल पा रही है, वह विचारधारा कल समाधान निकाल लेगी इस पर हमें संशय है ।

यह विचारधारा समस्याओं का समाधान नहीं कर सकती इसलिए सत्ता में आने के लिए उसे नफ़रत फैलानी पड़ती हैं, दंगे करवाने पड़ते हैं, लोगों को एक-दूसरे से लड़वाना पड़ता है और जब लड़ाई होती है, संघर्ष होता है, दंगे होते हैं, नफ़रत फैलती है तब समस्या और बढ़ जाती है । समस्या जब बढ़ेगी तो और दंगे होंगे और नफ़रत फैलायी जायेगी । नफ़रत और दंगे का सिलसिला एक ऐसा चक्रव्यू है जिससे बाहर निकलने का रास्ता अगर आज भारत के बेटे-बेटियों ने नहीं सोचा तो वह दिन दूर नहीं जब हम एक ऐसी अंधी गली में फंस जायेंगे जहाँ से बाहर निकलने का कोई रास्ता, हमारे-आपके किसी के पास नहीं होगा ।

अगर नकारात्मक राष्ट्रवाद के पास इसका समाधान नहीं है तो यह भी जानना जरूरी है कि सकारात्मक राष्ट्रवाद इसका समाधान कैसे कर सकता है क्योंकि विरोध के लिए विरोध करने से समाधान नहीं पैदा होता । समाधान के लिए नए चिन्तनकी जरूरत है, नए आधार की जरूरत है, नयी पहल की ज़रूरत है ।

जैसा कि मैंने पहले कहा कि नकारात्मक राष्ट्रवाद नफ़रत की बुनियाद पर खड़ा होता है और सकारात्मक राष्ट्रवाद मोहब्बत की बुनियाद पर खड़ा होता है । नकारात्मक राष्ट्रवाद का पहला पहलू तोड़ना होता है । दिलों को तोड़ कर देश पर राज करने का फॉर्मूला है- नकारात्मक राष्ट्रवाद । दिलों को जोड़ कर देश में एक ऐसी सत्ता का निर्माण करना जिससे समाधान पैदा हो उसका नाम है- सकारात्मक राष्ट्रवाद ।

सकारात्मक राष्ट्रवाद क्या कहता है ? सकारात्मक राष्ट्रवाद कहता है कि अगर देश को मजबूत बनाना है तो देश के अंदर रहने वाले सभी धर्म के लोगों को, सभी जाति के लोगों को, सभी भाषा के लोगों को, सभी क्षेत्र के लोगों को, चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, सभी की ऊर्जा को एक सूत्र में जोड़ना होगा । जब इस देश के समग्र मानवीय ऊर्जा को, प्राकृतिक ऊर्जा को, सांस्कृतिक ऊर्जा को जोड़ा जाएगा तब उससे जो ऊर्जा पैदा होगी । उस ऊर्जा का अंदाजा लगाना के लिए हमें आज़ादी की लड़ाई के पन्नों को देखना होगा ।

यह देश अलग-अलग नवाबों, अलग-अलग राजाओं में बंटा हुआ था । ईस्ट इंडिया कंपनी के राज के सौ साल पूरे होने पर अट्ठारह सौ सत्तावन की जंगे आज़ादी में लोगों ने इस देश के अंदर एक एकता की शुरूआत की । हमारे पुरखों ने इस देश में अंग्रेजों के खिलाफ जो लड़ाई लड़ी, उसका महामंत्र था- सकारात्मक राष्ट्रवाद । 1857 की पहली जंग-ए-आज़ादी में अंग्रेजों से लड़ने के लिए देश इकट्ठा होना शुरू होता है । नवाब भी इकट्ठे होते हैं, राजा भी इकट्ठे होते हैं, सैनिक भी इकट्ठे होते हैं, किसान भी इकट्ठे होते हैं और नौजवान भी इकट्ठे होते हैं ।

सकारात्मक राष्ट्रवाद की ऊर्जा और उसके चिन्तन की यह ताकत है कि जब वह बहादुर शाह जफर के दिल में पैदा होती है तो वह उन्हें बुढ़ापे में भी देश के लिए मर-मिटने की एक तमन्ना पैदा कर देती है, उत्साह पैदा कर देती है, हिम्मत पैदा कर देती है । सकारात्मक राष्ट्रवाद की ऊर्जा एक तरफ बहादुर शाह जफर को लड़ने के लिए प्रेरित करती है तो दूसरी तरफ नाना साहब के दिल में भी वहीं तरंग पैदा करती है । सकारात्मक राष्ट्रवाद की ऊर्जा वह ऊर्जा है जो एकतरफ झांसी की रानी के दिल में तरंग पैदा करती है तो दूसरी तरफ बेगम हजरत महल के दिल में भी वही तरंग पैदा करती है । सकारात्मक राष्ट्रवाद की जो ऊर्जा अजीमुल्ला खान के दिल में पैदा होती है वही ऊर्जा तात्या टोपे के दिल में भी पैदा होती है ।

सकारात्मक राष्ट्रवाद की ऊर्जा वह ऊर्जा है जो राम प्रसाद बिस्मिल को फांसी के फंदे पर हंसते-हंसते झूलने के लिए प्रेरित कर देती है । सकारात्मक राष्ट्रवाद की ऊर्जा वह ऊर्जा है जो असफाक उल्ला खान को देश के लिए मर मिटने को प्रेरित कर देती है । पं. राम प्रसाद बिस्मिल गीता को पढ़ते हैं, हिन्दूधर्म को मानते हैं, आर्य समाज को मानते हैं लेकिन देश के लिए, कुर्बानी देने के लिए खड़े हो जाते हैं । असफाक उल्ला खान इस्लाम को मानते हैं, कुरान पढ़ते हैं लेकिन देश के लिए, मादरे वतन की आज़ादी के लिए कुर्बान होने के लिए तैयार हो जाते हैं ।

सकारात्मक राष्ट्रवाद की ऊर्जा वह ऊर्जा है जो भगत सिंह को भी प्रेरित करती है, चन्द्रशेखर आजाद को भी प्रेरित करती है । अगर बंगाल में पैदा हुए बटुकेश्वर दत्त को प्रेरित करती है तो पंजाब में पैदा हुए करतार सिंह सराभा को भी प्रेरित करती है । इस देश के बेटे-बेटियों में, चाहे वह किसी भी जाति के हो, किसी भी धर्म के हो, किसी भी क्षेत्र के हो, किसी भी लिंग के हो, किसी भी भाषा के हो जिस दिन सकारात्मक राष्ट्रवाद की ऊर्जा पैदा होती है वे भाषा, क्षेत्र, लिंग, प्रांत, जाति, धर्म समस्त ऊर्जा से ऊपर उठकर वे अपने देश को, अपने राष्ट्र को तरंगित करने लगते हैं । इसी ऊर्जा के दम पर हमारे पुरखों ने आज़ादी की लड़ाई लड़ी और यह देश आजाद हुआ । सकारात्मक राष्ट्रवाद की ऊर्जा लोगों को जोड़ती है और इतना तो हर इंसान को समझ में आता है कि जोड़ने से ताकत बढ़ती है और तोड़ने से ताकत कमज़ोर होती है । अगर इस देश को आगे बढ़ाना है तो इस देश की समग्र ऊर्जा को संगठित करना, उन्हें आपस में जोड़ना ज़रूरी है ।

इस देश के सभी बेटे-बेटियों में कोई ना कोई सकारात्मक ऊर्जा है, उस ऊर्जा को एक माले के रूप में पिरोने की ज़रूरत है और उस माले के अलग-अलग मोतियों की ऊर्जा को जोड़कर एक सूत्र में बांधने वाले धागे का नाम है- सकारात्मक राष्ट्रवाद । सकारात्मक राष्ट्रवाद की ऊर्जा में सबकी सहभागिता सुनिश्चित है क्योंकि हमारे समाज के अंदर समानता का मतलब एकरूपता नहीं है । सकारात्मक राष्ट्रवाद के चिन्तनमें यदि आपको लोगों को जोड़ना है तो लोगों की हिस्सेदारी और उनके न्याय को सुनिश्चित करना पड़ेगा । जब आप माला पिरोते हो तो धागे में प्रत्येक मनके को उचित स्थान देना पड़ता है । न्याय और हिस्सेदारी को सुनिश्चित किए बगैर यदि माला बनाई जाए तो वह अव्यवास्थित और बदसूरत होगी ।

सकारात्मक राष्ट्रवाद का चिन्तन इस बात को मानता है कि अगर इस देश की समस्त ऊर्जा को इकट्ठा किया जाए तो नया चिन्तनपैदा होगा । नए चिन्तनसे नया ज्ञान और नए ज्ञान से नया विज्ञान पैदा होगा । नए विज्ञान से नई टेक्नोलॉजी पैदा होगी और हम टेक्नोलॉजी के स्तर पर, प्रौद्योगिकी के स्तर पर और ज्ञान-विज्ञान के स्तर पर दुनिया का मुकाबला कर पाएंगे । आगे बढ़ पायेंगे और इस देश की वर्तमान समस्याओं के समाधान का रास्ता निकाल पायेंगे ।

मैं बार-बार कहता हूं कि भारत में किसी चीज की कमी नहीं है । भारत के पास जितनी उपजाऊ जमीनें हैं, दुनिया के कम देशों के पास है । भारत के पास जितनी प्राकृतिक संपदा है, खनिज पदार्थ है, दुनिया के कम देशों के पास है । भारत में जितनी नदियाँ बहती हैं, दुनिया के बहुत कम देशों में बहती है । भारत के पास जितनी श्रम शक्ति है, दुनियां के कम देशों के पास है । भारत के पास जितनी बौद्धिक और मानसिक क्षमता है, दुनिया के कम देशों के पास है । भारत के लोगों को कुदरत ने सब कुछ दिया है । भारत में कुदरत से मिले मानवीय संसाधनों और प्राकृतिक संसाधनों को एक सूत्र में पिरो कर एक नई दिशा में लगा दिया जाए तो उस ऊर्जा से हम नए कारोबार का, नए उद्योगों का और विकास के नए तंत्र का निर्माण कर सकते हैं ।

सकारात्मक राष्ट्रवाद के चिन्तनके दो मुख्य पहलू हैं । पहला- लोगों में एकता और मोहब्बत और दूसरा- देश के निर्माण में सभी लोगों की हिस्सेदारी । जब मैं देश के निर्माण में लोगों की हिस्सेदारी की बात करता हूं तो इस देश के अंदर सकारात्मक राष्ट्रवाद के चिन्तनके आधार पर विकास के एक ऐसे ताने-बाने के निर्माण की बात करता हूँ जिसमें देश के सभी लोगों की हिस्सेदारी सुनिश्चित हो । इसी हिस्सेदारी को हम ‘रोजगार’ कहते हैं । अगर किसी भी देश के आधे से ज्यादा लोग बेरोज़गार पड़े हैं, उनकी ऊर्जा का कोई उपयोग नहीं हो रहा है तो इसका सीधा सा मतलब है कि देश के निर्माण में उनका कोई योगदान नहीं हो रहा है । जब आबादी के एक बड़े हिस्से की देश के निर्माण में कोई हिस्सेदारी नहीं है तो देश आगे कैसे बढ़ सकता है ? आज भी गांव में मनरेगा से केवल 3 महीने काम मिलता है और 9 महीने हमारे राष्ट्र की उस ऊर्जा का उपयोग नही हो पाता है । इस देश के अंदर आधी आबादी महिलाओं की है लेकिन उनकी देश के निर्माण में कोई हिस्सेदारी नहीं है । उनके लिए कोई रोजगार नहीं है ।आज इस देश के अंदर करोड़ों की तादात में यूनिवर्सिटी-कॉलेज से नौजवानों की एक पूरी भीड़ निकल कर बेरोजगार घूम रही है । वे बेरोजगार हैं बात इतनी नहीं है । उनके पास आर्थिक अधिकार नहीं है, हमारे विकास के तंत्र में उनकी ऊर्जा की कोई हिस्सेदारी नहीं है । देश के निर्माण में जो उनकी हिस्सेदारी होनी चाहिए उससे उनको वंचित किया जा रहा है ।

आज जो हम नकलची बंदर की तरह पूरी दुनिया के अंदर घूम रहे हैं और सोचते हैं कि शायद हम जापान की टेक्नोलॉजी को अपनाकर भारत का विकास कर लेंगे । कोई नई सरकार आती है तो वह सोचती है कि अमेरिका की टेक्नोलॉजी अपनाकर हम भारत का विकास कर लेंगे । यह पूरी तरह गलत है । दुनिया के अंदर जो टेक्नोलॉजी विकसित हुई है, उसके महत्वपूर्ण और उपयोगी पहलुओं को अपनाना जरूरी है । अगर हम भारत की विकास यात्रा को आगे बढ़ाना चाहते हैं तो हमें भारत के प्राकृतिक संसाधनों के अनुरूप, भारत के मानसून के अनुरूप तथा हमारी क्षेत्रीय विषमताओं के अनुरूप, भारत के बेटे-बेटियों के श्रम और ज्ञान-विज्ञान का उपयोग करके क्षेत्र विशेष की परिस्थितियों के अनुसार टेक्नोलॉजी का विकास करना पड़ेगा । जैसे- छत्तीसगढ़ में वहां के जंगलों के उत्पादों के अनुरूप, औद्योगिक विकास के लिए टेक्नोलॉजी को विकसित करना पड़ेगा । इसी प्रकार पहाड़ी, मैदानी और पठारी क्षेत्रों के लिए भी अलग-अलग टेक्नोलॉजी विकसित करनी पड़ेगी । इससे भारत के बेटे-बेटियां अपने गांव, कस्बे और क्षेत्र में ही रोज़गार पाकर देश के निर्माण में अपना योगदान दे सकते हैं । सबको रोजगार और सम्मान मिल सकता है । यकीन मानिए यह आर्थिक हिस्सेदारी, सामाजिक न्याय की गारंटी की तरफ एक मज़बूत कदम साबित हो सकती है । इस तरह सकारात्मक राष्ट्रवाद के दोनों प्रमुख पहलूओं- ‘आपसी मोहब्बत’ और ‘सबकी हिस्सेदारी’ सुनिश्चित की जा सकती है जिससे देश के सभी लोगों को काम और सम्मान मिल सके साथ ही देश के निर्माण में सबका योगदान शामिल हो सके ।

इस प्रकार जिसने पढ़ाई नहीं की वह भी देश के निर्माण में योगदान कर सकता है । जो आठवीं फेल है, वह भी योगदान कर सकता है । जो दसवीं पास है, वह भी योगदान कर सकता है और जो ग्रेजुएट हो गया, वह भी योगदान कर सकता है । जो डॉक्टर, इंजीनियर और टीचर बन गया है, वह भी योगदान कर सकता है । जो आईएएस और आईपीएस बन गया है, वह भी योगदान कर सकता है । जो प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और मंत्री बन गया, वह भी योगदान कर सकता है । इस देश के अंदर भारत का कोई भी बेटा-बेटी, चाहे वह शिक्षित हो या अशिक्षित हो हम उसके रोजगार की गारंटी कर सकते हैं । इस तरह एक ऐसे तंत्र को विकसित किया जा सकता है जिससे देश के निर्माण में समग्र मानवीय संसाधन की हिस्सेदारी सुनिश्चित की जा सकती है ।

आपमें से कई लोगों के मन में यह प्रश्न पैदा हो रहा होगा कि इतने लोगों को रोजगार देने के लिए पैसा कहां से आएगा ? इस देश में पैसे की कमी नहीं है । भारत में 100 लोगों के पास इतना पैसा है जितना 100 करोड़ लोगों के पास नहीं है । हमें एक ऐसी व्यवस्था को निर्मित करने की ज़रुरत है जिससे देश के संसाधनों का न्यायपूर्ण बंटवारा हो सके । हमारा मानना है कि सकारात्मक राष्ट्रवाद के चिन्तनसे सकारात्मक व्यक्ति पैदा होगा, सकारात्मक व्यक्ति के चिन्तनसे सकारात्मक समाज पैदा होगा और इसी सकारात्मक समाज से सकारात्मक राष्ट्र पैदा होगा ।मैं ज़िम्मेदारी से कहना चाहता हूं, सकारात्मक राष्ट्रवाद का चिन्तनइस देश के लोगों को मोहब्बत के आधार पर जोड़ भी सकता है और सभी लोगों को उनके श्रम, विवेक, प्रतिभा और मान-सम्मान के साथ इस देश के निर्माण में योगदान करने का अवसर भी दे सकता है । सकारात्मक राष्ट्रवाद का यह चिन्तनभारत को एक खुशहाल देश बना सकता है साथ ही सभी भारतीयों को एक खुशहाल नागरिक भी बना सकता है और यकीन मानिए खुशहाल व्यक्ति और खुशहाल राष्ट्र ही दुनिया की खुशहाली की कामना कर सकता है ।

हमारी भारतीय सभ्यता और संस्कृति का जो सपना है ‘सर्वे भवंतु सुखिनः सर्वे संतु निरामया, सर्वे भद्राणि पश्यंतु मां कश्चित् दुख भाग भवेत’, ‘वसुधैव कुटुंबकम’ का जो सपना है, जिसे किसी सकारात्मक पलों में भारत के महर्षियों ने देखा था, उसका रास्ता सकारात्मक राष्ट्रवाद द्वारा खुल सकता है । सकारात्मक राष्ट्रवाद व्यक्ति को भी जोड़ने का काम करता है, समाज को भी जोड़ने का काम करता है और दुनिया के अंदर ऐसे राष्ट्र जो एक-दूसरे को खत्म करने की फिराक में बैठे हैं उनको भी जोड़ने का काम करता है । इस सकारात्मक चिन्तनसे, व्यक्ति से लेकर व्यवस्था तक, राष्ट्र से लेकर मानवता तक सबको एक सूत्र में बांधकर, विश्व के अंदर एक नए चिन्तनऔर नए इंसानी व्यवस्था के निर्माण के लिए आगे बढ़ा जा सकता है ।

सकारात्मक राष्ट्रवाद कहता है कि देश के अंदर सभी जाति, धर्म, मजहब के लोगों के लिए बराबर जगह है साथ ही अन्य देशों के साथ भी मोहब्बत के आधार पर जुड़ा जा सकता है । सभी लोग अपने अस्तित्व के साथ सह-अस्तित्व में जी सकते हैं । एक-दूसरे के सहयोग, मोहब्बत और खुशी की बात कर तरक्की के शिखर तक पहुंचा जा सकता है । जब जोड़ने की प्रक्रिया शुरू होगी तो आत्महत्या करने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी, कत्लेआम की ज़रूरत नहीं पड़ेगी और विखंडित होने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी । सकारात्मक राष्ट्रवाद व्यक्ति, समाज, देश और दुनिया के अंदर के बिखराव को खत्म करके सबको एक सूत्र में जोड़ सकता है । सब की खुशहाली की तमन्ना के रास्ते का नाम है- सकारात्मक राष्ट्रवाद ।

नकारात्मक राष्ट्रवाद सालों से देश के लोगों के मानस में अपनी जड़ें जमा रहा है । इससे यह प्रश्न उठता है कि जिस प्रकार नकारात्मक राष्ट्रवाद के विचार के प्रसार में कई वर्षों का समय लगा है तो क्या उसी प्रकार सकारात्मक राष्ट्रवाद के विचार के प्रसार में भी कई सालों का समय लगेगा ? उत्तर है – समय नहीं लगेगा । चूँकि संकट के समय में ही समाधान पैदा होता है और संकट जितना ही तीव्र होता है, समाधान भी उतना ही तात्कालिक और उतनी ही तेजी से होता है । आज जिस तरह की बेचैनी समस्त भारत भर के युवा महसूस कर रहे हैं । चाहे कश्मीर का युवा हो या कन्याकुमारी का युवा, कच्छ का युवा हो या कोहिमा का युवा, वे सब एक बेचैनी लिए हुए हैं कि देश अगर इसी तरह आगे बढ़ा तो देश का भविष्य क्या होगा ? इस चिंता और बेचैनी का समाधान है- ‘सकारात्मक राष्ट्रवाद’, जो कि एक समावेशी और समतामूलक राष्ट्र के निर्माण का मार्ग प्रशस्त करता है ।

इस विचार के प्रसार और प्रचार के लिए देश के युवाओं को इस बात की गारंटी करनी पड़ेगी कि क्या वे इस वैचारिक आन्दोलन को आगे बढाने के लिए दृढ़संकल्पित और समर्पित हैं ? कहना आसान है एक बार सोचने की कोशिश कीजिए । आज यदि हमारे पाँव में एक काँटा चुभता है तो मुंह से आह निकल पड़ती है । पर इसी मां भारती की मिट्टी की उस ऊर्जा को महसूस करने की कोशिश कीजिये जब देश की आज़ादी के नायक भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव फांसी के फंदे को चूमने जा रहे थे, उन्हें पता था की कुछ ही पल में फांसी का फंदा उनके गर्दन में होगा पर वे मुस्कुरा रहे थे । हमसे एक कांटा बर्दाश्त नहीं होता और वे अपनी शहीदी पर भी मुस्कुरा रहे थे । वे इसी मिट्टी के बेटे थे । झांसी की रानी, बेगम हजरत महल इसी मिट्टी की बेटियां थी । अगर इस देश के लिए सचमुच कुछ करना चाहते हैं तो सबसे पहले अपने अंदर की ऊर्जा को जगाइए । सकारात्मक राष्ट्रवाद की मंजिल पर पहुंचने की पहली शर्त है – अपने अंदर की सकारात्मक ऊर्जा को जागृत करना ।

मैं देश के तमाम बेटे-बेटियों से कहना चाहता हूं कि रोजाना घुट-घुट कर जीने-मरने से बेहतर है मां भारती के लिए अपनी ऊर्जा को जागृत करना । मरना है तो कुछ करके मरो, जीना है तो कुछ करके जीओ । इस तरह घुट-घुट के जीने-मरने से ना आपका कोई विकास होने वाला है ना ही इस देश का विकास हो सकता है । आपके सामने जीने के दोनों रास्ते हैं, तय आपको करना है ।

यह सही है कि देश के युवाओं को अपनी ज़िंदगी भी बेहतर करनी है और परिवार की ज़िम्मेदारियों को भी निभाना है साथ ही यदि एक बेहतर राष्ट्र बनाना है तो नये राष्ट्र के निर्माण के लिए भी अपना समय देना होगा । एक इंसान के अंदर इतनी ऊर्जा संचयित होती है कि जो संकल्प वह लेता है, उसी के अनुपात में उसके अंदर ऊर्जा भी निर्मित होती है । मैं ज़िम्मेदारी से कहना चाहता हूं इस देश के अंदर सकारात्मक राष्ट्रवाद के चिन्तनको, इस वैचारिक आंदोलन को अगर हम भारत के बेटे-बेटियों के मानस तक पहुंचाने में सफल होते हैं तो यकीन मानिए एक ऐसी सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह होगा जिससे हमारे हिंदुस्तान का निर्माण होगा और बेहतर इंसान का भी निर्माण होगा ।

नए राष्ट्र के निर्माण के लिए व्यक्ति और व्यवस्था दोनों को बदलना ज़रूरी है । व्यवस्थाओं का संचालन व्यक्ति करता है और व्यक्ति की सोच व्यवस्थाओं को प्रभावित करती है । इसलिए ‘देश की बात फाउंडेशन’ को लगता है कि हमें व्यक्ति को भी बदलना है और व्यवस्था को भी बदलना है । हमें नए इंसान का भी निर्माण करना है और नए हिंदुस्तान का भी निर्माण करना है । सकारात्मक राष्ट्रवाद के विचार के संवाहक बनने के लिए हम भारत के बेटे-बेटियों को तैयार होना पड़ेगा और मुझे यकीन है कि यह रास्ता इस देश को एक नई रोशनी दिखाएगा, इस दुनिया को एक नई रोशनी दिखाएगा । यह हमारे आज़ादी के लाखों शहीदों को, जिन्होंने देश की आज़ादी के लिए हंसते-हंसते अपनी कुर्बानी दी, के सपनों को भी साकार करेगा ।

इन्कलाब जिंदाबाद । । ।

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